Monday, August 30, 2021

एमपी के ऐसे सीएम जो नेहरू को कहते थे भाई, अपने मंत्रियों-अफसरों से पूछते थे आप कौन…

अजब मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) की राजनीतिक गलियारों के किस्से भी गजब ही है। यहां रविशंकर शुक्ल की मौत के बाद मुख्यमंत्री बनने वाले कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) के ‘नेहरू को भाई’ वाली बातें हमेशा से पंडित नेहरू को असहज करती दिखती रही है। यही असहजता के कारण उन्हें मध्यप्रदेश सीएम की कुर्सी मिली थी।

राजनीतिक पड़ाव की शुरूआत:- कैलाशनाथ काटजू, (Kailash Nath Katju) सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू के दादाजी थे। कश्मीरी पंडित से संबंध रखने वाले कैलाशनाथ काटजू की पढ़ाई इलाहाबाद से हुई थी, और वहीं से उन्होंने अपनी वकालत भी शुरू की थी। वकालत के दिनों में काटजू, मोतीलाल नेहरू के साथ रहे थे। उनके साथ वकालत की थी। काटजू पंडित नेहरू से दो साल बड़े थे और उन्हें भाई कहते थे, और यही बात नेहरू को असहज करती थी।

देश में जब आजादी की लड़ाई चल रही थी, तब कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) भी इस लड़ाई में अपना योगदान दे रहे थे। अंग्रेजों के जाने के जब पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस जीती और सरकार का गठन हुआ तो कैलाशनाथ काटजू को मंत्रीपद के लिए चुना गया, लेकिन काटजू इसके लिए तैयार नहीं हुए। नेहरू कानून मंत्री के रूप में काटजू का नाम तय कर चुके थे, सो उन्होंने कैलाशनाथ को मनाने का जिम्मा दिया राजेन्द्र प्रसाद को।

राजेन्द्र प्रसाद के सामने रख दिया पासबुक:- राजेन्द्र बाबू, कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) से मिले और मंत्रीपद स्वीकार करने के लिए कहा, काटजू सिरे से मना कर बैठे। काटजू साहब उस दौर में नामी वकील थे, खानदानी रईस थे। जिस दौर में 2-3 हजार रुपये में कार आ जाती थी, वो अपनी वकालत से 25-30 हजार रुपये कमा रहे थे। नेहरू से अपने आप को ऊपर मानते थे। काफी कोशिशों के बाद कैलाशनाथ मंत्री बनने के लिए तैयार हुए, लेकिन इसके बाद जो उन्होंने किया वो रोजेन्द्र प्रसाद के लिए कम चौंकाने वाला नहीं था।

बातचीत के बीच में कैलाशनाथ उठकर अंदर गए और अपना बैंक पासबुक राजेन्द्र प्रसाद के सामने रख दिया। उस समय उनके अकाउंट में 13 लाख रुपये थे। पासबुक दिखाते हुए कैलाशनाथ बोले- “देख लीजिए, कल को मैं मंत्री पद से हटूं तो कोई ये ना कहे कि मैंने गलत तरीके से संपत्ति अर्जित की है”। उनके ऐसा करने से राजेन्द्र प्रसाद हक्के-बक्के रह गए।

इसके बाद कैलाशनाथ नेहरू सरकार में कानून मंत्री बने, फिर गृह मंत्री और रक्षा मंत्रालय की भी जिम्मेदारी संभाली। कैबिनेट में एक मात्र काटजू ही थे जो नेहरू को भाई कहकर बुलाते थे। मोती लाल नेहरू के साथ वकालत करने के कारण वो हमेशा पंडित नेहरू से अपने आप को ऊपर मानते थे। इधर नेहरू अब रक्षा मंत्री की कुर्सी पर वीके कृष्णमेनन को बैठाना चाह रहे थे।

जब भोपल पहुंचे काटजू:- नेहरू अभी कृष्णमेनन के बारे में सोच ही रहे थे कि मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में मुखयमंत्री की कुर्सी संभाल रहे रविशंकर शुक्ल का निधन हो गया। शुक्ल के निधन के बाद मध्यप्रदेश की कुर्सी खाली हो गई और कांग्रेस में गुटबाजी भी शुरू हो गई। नेहरू मध्यप्रदेश की हालत देखकर चिंतित हो रहे थे। भगवंतराव मंडोली और तखतमल जैन की गुटबाजी के बीच नेहरू ने कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया।

राजनीतिक गलियारों में पंडित नेहरू का ये फैसला एक तीर से दो शिकार माना गया। पहला मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में जारी गुटबाजी पर अंकुश लग गई और उनका अपना मनपसंद रक्षा मंत्री भी मिल गया। कैलाशनाथ जब भोपाल पहुंचे तो उन्हें वहां जानने वाला कोई नहीं था। आलाकमान के आदेश पर प्रदेश कांग्रेस के नेता उन्हें मुख्यमंत्री तो मान लिए थे, लेकिन भीतरखाने गुटबाजी चलती रही।

कांग्रेस जीती- काटजू हारे:- 1957 में चुनाव हुआ और फिर कांग्रेस वापस सत्ता में आई। काटजू दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन 1962 के चुनाव में काटजू के साथ खेल हो गया। कांग्रेस बहुमत तो ले आई लेकिन काटजू खुद चुनाव हार गए। काटजू के साथ-साथ नेहरू के लिए ये बड़ा झटका था। हार के दोषी को खोजने के लिए नेहरू ने जांच कमेटी बना दी। जांच के बाद मूलचंद देशलहरा का नाम हराने वालों में मुख्यरूप से सामने आया।

मूलचंद को इस्तीफा देना पड़ गया और तखतमल जैन को कांग्रेस संगठन में बुला लिया गया। नेहरू की जिद थी कि काटजू ही मुख्यमंत्री बनें। इसके बाद लोकसभा और विधानसभा दोनों जगह के लिए चुने गए भानुप्रकाश सिंह ने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया और काटजू वहां से उपचुनाव में जीत गए।

कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) को दोबारा से मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयारी होने लगी थी, लेकिन तब तक राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र कांग्रेस के अंदर आ चुके थे। देशलहरा गुट भी मुख्यमंत्री का दावा ठोक चुका था, काटजू को समझ में आ गया कि वो निर्विरोध नहीं चुने जा सकते हैं तो उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया।

अपने ही मंत्री को भूले:- नेहरू के चहेते काटजू, प्रदेश के नेताओं के आंतरिक विरोध के बाद भी मध्यप्रदेश की कुर्सी तो आराम से संभाल रहे थे, लेकिन बढ़ती उम्र और कमजोर यदाशत उनके अपने ही मंत्रियों के लिए कभी-कभी मुसीबत पैदा कर देती थी।

काटजू के मंत्रीमंडल में एक मंत्री थे दशरथ जैन। एक दिन छत्तरपुर सर्किट हाउस में जब स्थानीय विधायक और मंत्री दशरथ जैन एक प्रतिनिधि मंडल लेकर पहुंचे, तो जैन ने सभी का परिचय काटजू से करवाया। सभी के परिचय होने के बाद काटजू, दशरथ जैन से ही पूछ बैठे और आप…? तब उन्होंन कहा कि मैं दशरथ जैन हूं, डॉक्टर साहब। इसपर जो काटजू ने जो कहा, उससे वहां बैठे सभी लोग अवाक रहे गए। काटजू ने कहा कि एक दशरथ जैन तो हमारे मंत्रीमंडल में भी हैं।

बेचारे जैन ने फिर कहा कि वो वही दशरथ जैन हैं। तब काटजू ने कहा- “पहले क्यों नहीं बताए, क्या मैं नहीं जानता? इसी तरह की एक और कहानी है जब खाण्डवा के डीएम उन्हें दौरे पर ले गए। वो भी खुद गाड़ी चलाकर। जब वो लोग बुरहानपुर रेस्ट हाउस तो पहुंचे तो डीएम साहब, मुख्यमंत्री से अधिकारियों का परिचय कराने लगे, परिचय कार्यक्रम जब खत्म हुआ तो काटजू, उन्हीं से पूछ बैठे कि उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया। बेचारे डीएम साहब झेंपते हुए बोले- सर मैं कलेक्टर हूं, आपको मैं ही तो यहां लेकर आया हूं। इसपर काटजू हस दिए।

जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju) साहब थे तो उनकी सादगी के चर्चे भी हमेशा रहे। अपने खर्चे के लिए वो हर तीन महीने पर 1000 हजार रुपये इलाहाबाद से मंगवाते थे। जब मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) सीएम की कुर्सी चली गई तो वापस अपने घर इलाहाबाद आ गए, जहां फरवरी 1968 को उन्होंने अंतिम सांस ली और स्वर्गलोग को पधार गए।

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