तकनीक जब गति और प्रसार का अखिल और स्वीकृत माध्यम बन जाए तो मानवीय संवेदना से जुड़े सरोकार कैसे जमीन खोने लगते हैं सोशल मीडिया की दुनिया आज इसकी बड़ी गवाही देती है। खासतौर पर महिलाओं के बारे में यह गवाही कई बड़ी चिंताओं को जन्म देती है। अलबत्ता कोरोना के खतरे के बीच इस साल भी सोशल मीडिया अपने लोगों से जुड़ने, अपनी बात कहने और अपने अकेलेपन से बाहर निकलने का बड़ा जरिया बना रहा।
इस दौरान सोशल मीडिया से जुड़े मंचों पर महिलाओं ने अपनी जिंदगी के बारे में, अपने संघर्ष के बारे में और साथ ही अपनी उपलब्धियों के बारे में खूब बातें की। कई ऐसी महिलाएं भी सामने आर्इं जो इस दौरान कविता-कहानी के रूप में अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति दी। कुल मिलाकर यह ऐसा अनुभव रहा जो हर लिहाज से रचनात्मक मानी जाएगी। पर यह रचनात्मकता जब कुछ पेशेवरों के हाथ लगी तो उन्होंने महिलाओं के लिए रातोंरात आफत की जमीन तैयार कर दी। ओटीटी प्लेटफार्म का निर्भीक खुलापन तो इस दौरान अभद्रता से आगे सीधे-सीधे नग्नता के गर्त तक पहुंचा ही, इसके आगे की हिमाकत भी सामने आई।
इस साल मुसलिम समुदाय की महिलाओं को सीधे-सीधे आनलाइन सेल में डाल देने का एक ऐसा अनुभव सामने आया, जिसने सबको चौंका दिया। ‘सुल्ली डील्स’ नाम के एक ऐप पर बिना इजाजत के कई मुसलिम महिलाओं की तस्वीरें अपलोड कर दी गर्इं और ‘सुल्ली आफ द डे’ के तौर पर उनकी बोली लगाई गई। ‘सुल्ली’ शब्द महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द है। जाहिर है कि यह शब्द खासतौर पर मुसलिम महिलाओं का मानसिक सामाजिक शोषण करने के लिए किया गया।
एक लोकतांत्रिक देश में धर्म विशेष की औरतों के लिए कोई डिजिटल सुरक्षा न होना गंभीर समस्या है। ‘सुल्ली डील्स’ के जरिए यह भी समझ में आया कि धर्म और संप्रदाय का तेजाबी खेल कितना घातक है और यह किस तरह हमारी सामाजिक रचना से जुड़े संवेदनशील सरोकारों को तहस-नहस कर देता है। आमतौर पर सांप्रदायिकता की बहस को राजनीतिक चौकोर में हम बांधकर देखने के आदी रहे हैं। इस बारे में गंभीर विमर्श करने वाले अध्येता भी अपने तर्कों से यही समझाते हैं कि सांप्रदायिकता के जरिए किस तरह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक मंसूबे अपराजेय हो जाते हैं। ‘सुल्ली डील्स’ ने यह जाहिर किया कि सांप्रदायिकता उस मानसिकता का सच है, जिसका ध्येय विभाजन और नफरत है।
जिस सोच के जरिए ‘सुल्ली डील्स’ जैसे ऐप बनाए जाते हैं, वह वही सोच है जो समाज में बदलाव की हर पहल को जातीय और लैंगिक आधार पर बांटकर देखना पसंद करती है। बीते साल आई एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में दलित महिला नेताओं को आनलाइन दुर्व्यवहार ज्यादा झेलना पड़ा। रिपोर्ट की मानें तो उन्हें 59 फीसद अधिक धमकी और नफरत भरे ट्वीट्स का सामना करना पड़ा। मुसलिम महिलाओं को अन्य धर्मों की महिला नेताओं के मुकाबले 94.1 फीसद अधिक जातिगत या धार्मिक गालियां सुनने को मिलीं। साफ है कि सूचना और अभिव्यक्ति के जिन माध्यमों के जरिए हम तकनीक के दोस्ताने के साथ एक बेहतर दुनिया बनाने की बात सोचते हैं, वह दुनिया खुद कितनी महिला विरोधी है।
आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआएएफ) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2019 तक भारत में 67 फीसद पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 33 फीसद महिलाओं ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया था। 52 फीसद महिलाएं यूजर इंटरनेट पर अपनी निजी जानकारी साझा करने में भरोसा नहीं करती हैं। 26 फीसद से भी कम महिलाएं उत्पीड़न, पार्न का शिकार होने के डर और महिला द्वेष के कारण मोबाइल-इंटरनेट के इस्तेमाल से दूर हैं। बीते साल की ओआरएफ की ही दूसरी रिपोर्ट कहती है कि वास्तविक और साइबर स्पेस हिंसा को अलग-अलग करना नामुमकिन हो गया है। इंटरनेट ट्रोल्स का एक बड़ा तबका सांप्रदायिक मुद्दे पर ही ध्यान केंद्रित करता है और पितृसत्ता का नया ढांचा तैयार करता है।
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